कोरोना : प्रकृति का संदेश
आज जब लोग घर में हैं एक दूसरे की देखभाल कर रहे हैं। आस पास के लोगों की सहायता कर रहे हैं तब यह समझ में आता है कि हम जिसे होशियारी समझ कर अपने सीने से चिपकाए थे वह तो मात्र कूड़े का एक ढेर था। जिस गंगा और यमुना की सफाई के लिए अरबों रूपये खर्च कर दिए गये, तमाम संसाधन होम कर दिए गये,वो तो बिना किसी प्रयास के मात्र दस दिन गंदगी न फेंकने की वजह से स्वच्छ हो रही हैं।
मानव प्रकृति का हिस्सा है। मानवी क्रिया को प्रायः अन्य प्राकृतिक विषय से अलग श्रेणी के रूप में समझा जाता है। मानव और पशुपक्षी आदि सभी प्रकृति की ही तो देन है। मानव अपनी विकास की ओर बढता जा रहा है,लेकिन वह प्रकृति की अनदेखी कर रहा है ! हम प्रकृति से जितना दूर जाते रहेंगे,प्रकृति हमें उतना दूर करते रहेगी।
वास्तव में मानव की पाषाण काल से लेकर वर्तमान में लॉकडाउन युग की यात्रा बड़ी अद्भुत और विचित्र रही है। अक्सर यह बताया जाता है कि प्रगति रेखीय होती है परन्तु यदि प्रगति प्रकृति के नियमों के अनुरूप न हो तो यह हमेशा चक्रीय ही होती है। प्रकृति हमें वापस उसी जगह लाकर पटक देती है जहां से हम यात्रा प्रारम्भ करते हैं।
गुफा युग की वापसी इस बात की तस्दीक करती है कि निश्चय ही प्रकृति हमें पुनः उसी जगह वापस लाना चाहती है जहां से हमने सभ्यता की शुरुआत की थी। लेकिन जैसे जैसे यात्रा बढती गयी हम निरंतर जाहिल होते गए और जाहिलियत इतनी बढ़ी कि धरती का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया।
आज हम घरों में उसी तरह दुबक कर बैठे हैं जैसे आदि मानव अपनी गुफाओं में दुबक कर रहता था। यह मनुष्य के निरंतर जाहिल होने का प्रमाण है कि धरती को गंदा कर, मानव का मानव के प्रति घृणा बढाकर अपने को सभ्य होने का खोखला प्रलाप करता रहा। मनुष्य ने ऐसे अनेकानेक अनावश्यक डर, सुविधाएं, व्यवस्थाएं और विचारधाराएं बनाई जिसके भार को थामने को ही वह अपना सामर्थ्य समझता रहा।
आज जब लोग घर में हैं एक दूसरे की देखभाल कर रहे हैं। आस पास के लोगों की सहायता कर रहे हैं तब यह समझ में आता है कि हम जिसे होशियारी समझ कर अपने सीने से चिपकाए थे वह तो मात्र कूड़े का एक ढेर था। जिस गंगा और यमुना की सफाई के लिए अरबों रूपये खर्च कर दिए गये, तमाम संसाधन होम कर दिए गये,वो तो बिना किसी प्रयास के मात्र दस दिन गंदगी न फेंकने की वजह से स्वच्छ हो रही हैं।
अस्पतालों में , शमशानों में और कब्रिस्तानों में दुर्घटना और बीमारी की वजह से मरने वालों की संख्या में कमी आई है। पारिवारिक ताने बाने, नाते रिश्ते मजबूत हुए हैं। हवाएं दुर्गंध छोड़ कर ताजगी महक रही हैं। सबसे खूबसूरत बात जिसका जिक्र 1854 में एक अंग्रेज ने किया था वह यह है कि जालंधर के लोगों को उनके जीवन काल में पहली बार अपने घर की छतों से हिमालय की चोटियां साफ दिखाई दे रही हैं, रात में चमकते तारों और चन्द्रमा को देखकर फिर से माताएं दूध कटोरा की लोरी याद करने लगी हैं।
उत्तराखंड में हाथी, नोएडा के ग्रेट इंडिया प्लेस में नीलगाय, बरसों बाद उड़ीसा के तट पर दिन में भी अपने अंडों के पास आते ऑलिव रिडली कछुए, चंडीगढ़ में कुलांचे भरते सांभर, मुंबई के मरीन ड्राइव और मालाबार हिल्स पर खुशी से उतराती डॉल्फिन, सड़कों पर मस्ती करते एन्डेंजर्ड सिवेट और पक्षियों की चहचाहट वापस लौट आई है।
प्रकृति शायद आखिरी बार मनुष्य को मौक़ा देना चाहती है और इसीलिए वह अपने तरीके से यह संदेश देे रही है कि मानव अपनी कुत्सित लिप्सा से मुक्त होकर आनंद पूर्वक जीवन की तरफ लौटे। अब धरती पर और अत्याचार नहीं धरती सबकी जरूरत को पूरा कर सकती है। लेकिन किसी एक के लालच को नहीं। हमें अपनी जरूरतों को पहचानना होगा।
याद रखिये जरूरत से ज्यादा उपभोग धरती पर केवल और केवल दबाव ही बढ़ाता है। आपके द्वारा किया गया अपरिग्रह और प्राकृतिक नियमों के अनुकूल जीवन यापन ही मानव सभ्यता को आगे जीवित रख सकता है। यदि हम प्रकृति के इस सन्देश को नहीं समझे तो उत्तर कोरोना काल के बाद धरती पर पेड़-पौधे,नदियां और पहाड़ सभी मौजूद होंगे पर मनुष्य नहीं होगा।
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